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यथार्थ बोध के कवि हैं गोस्वामी तुलसीदास

दैनिक बुद्ध का सन्देश :  गोस्वामी तुलसीदास को युटोपियाई कवि समझने वाले सौ फीसदी गलत है। क्योंकि गोस्वामी जी सिर्फ कल्पना लोक ही नहीं रचते बल्कि वे अपने काव्य के द्वारा युगीन विषमताओं को भी प्रतिध्वनित करते हैं

गोस्वामी तुलसीदास का मूल्यांकन करने में उनके द्वारा विरचित श्रीरामचरित मानस को ही केंद्र में रखा जाता है किंतु सात काण्ड में ही विभाजित कवितावली भी श्रीराम कथा के माध्यम से युगीन विषमताओं और तत्कालीन सामाजिक सच्चाई को आम जनता के समक्ष प्रस्तुत करती है। कवित्त, चौपाई और सवैया छंदों में रचित यह एक श्रेष्ठ काव्य है। आप देखेंगे तो पाएंगे कि गोस्वामी तुलसीदास के समक्ष भाषाई विभेद मिट जाता है। वे संस्कृत, अवधी और ब्रज सभी बोलियों और भाषाओं के मर्म को पहचानते हैं। वे भक्ति के साथ करुणा के यथार्थता की पहचानते हैं। वे भूख की पीड़ा को पहचानते हैं। कवितावली में ही है, खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि, बनिक को बनिज न चाकर की चाकरी। जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस , कहै एक एकन से कहां जाई का करी? अर्थात किसान को न किसानी मिलती थी, न ही व्यापारी को व्यापार करने का अधिकार था। लोग आजीविका विहीन थे। भुखमरी और त्रासदपूर्ण स्थिति थी। ऐसे में लोग कहते थे कि कहां जाएं और कौन सा रोजगार करें। यह अर्थ रामकथा से इतर युगीन अर्थ की प्रस्तुति है। यह हमें बतलाती है कि उस समय हमारे सनातनी समाज का कितना कष्टपूर्ण जीवन था। गौरतलब है कि जिस समय गोस्वामी जी कवितावली रच रहे थे, उन दिनों भारत में इस्लामिक सत्ता की जड़ें मुगलिया सल्तनत के रूप में जम चुकी थीं। दरअसल गोस्वामी जी इस सत्ता में व्याप्त दीन दशा को अपनी कविताओं में प्रतीकात्मक रूप से व्याख्यायित कर रहे थे। गोस्वामी तुलसीदास अपने युग और समय के प्रति अत्यंत सचेत कवि हैं। कविता के द्वारा धार्मिक स्वायत्तता की परिकल्पना को मूर्त रूप देने में वे अप्रतिम हैं।
लेखक विनय कांत मिश्र : दैनिक बुद्ध का सन्देश

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