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सिद्वार्थनगर : करवाचौथ व्रत का महत्व और इतिहास, जानें कैसे हुई इसकी शुरूआत

दैनिक बुद्ध का संदेश
सिद्वार्थनगर। करवाचौथ का व्रत सुहागिन महिलायें अपनी पति की लम्बी आयु और अखण्ड सौभाग्य प्राप्ति होती है। इस व्रत को सुहागिन महिलायें अपने पति की लम्बी आयु के लिए और कुंवारी कन्या भी यह व्रत रखती है। कुंवारी कन्या मनचाहे वर की प्राप्ति के लिए इस व्रत को कर सकती हैं। कुंवारी कन्याओं के लिए करवाचौथ का व्रत खोलने के लिए तारे देखना का विधान है, जबकि सुहागन महिलायें इस व्रत को चांद को देखने के बाद ही खोल सकती हैं। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि करवाचौथ व्रत का क्या महत्व हैं। पुराणों में इस व्रत को लेकर क्या कहा गया है। आइये जानते हैं करवाचौथ का महत्व और इतिहास। करकचतुर्थी (करवाचौथ) (वामनपुराण) – यह व्रत कार्तिक कृष्ण की चन्द्रमा व्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है। यदि चन्द्र ग्रहण दो दिन पड़े या दोनों दिन न पड़े तो हह्य मातृ विद्या पद्धति के अनुसार पूर्व विद्धा ग्रहण करना चाहिए। इस व्रत में शिवजी, स्वामी कार्तिक तथा चन्द्रमा का पूजन तथा काली मिट्टी में चीनी की चाशनी मिलाकर नैवेद्य लगाना चाहिए। ढालकर बनाये हुए करवे या घी में सेंके हुए और खांड मिले हुए आटे के लड्डू अर्पण करने चाहिये। इस व्रत को विशेषकर सौभाग्यवती स्त्रियां अथवा उसी वर्ष में विवाही हुई लड़कियां करती है और नैवेद्य के 13 करवे या लड्डू और 1 लोटा, 1 वस्त्र और 1 विशेष करवा पति माता-पिता क्या देते हैं व्रत करने वाले को सुख, सौभाग्य, पुत्र-पौत्रादि और स्थायित्व की प्राप्ति के लिए सुबह स्नान करके नित्य कर्म करना आवश्यक है।

यह संकल्प करके बालू (सफेद मिट्टी) की वेदी पर पीपल का वृक्ष स्थापित करें। उसके नीचे शिव और षण्मुख की मूर्ति या चित्र लिखें और रखें, हह्यानंरू शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संततिं शुभम्। प्रायच्च भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥ फिर नैवेद्य पकवान (करवे) और दक्षिणा ब्राह्मण से पूजा करके स्वामी कार्तिक के साथ षोडशोपचार और हनमः शिवाय से शिव और हसनमुखाय नमरू से शिव (पार्वती) की पूजा करें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें और फिर भोजन करें। करवाचौथ का इतिहास इसकी कथा का सार यह है कि हशाखप्रस्थपुर के एक वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहित पुत्री वीरावती ने करकचतुर्थी का व्रत किया था। चन्द्रोदय के बाद भोजन करने का नियम था। लेकिन इससे उसकी भूख शान्त नहीं हुई और वह चिन्तित हो गई। तब उसके भाई ने पीपल का रूप धारण करके महताब (आतिशबाजी) आदि का सुन्दर प्रकाश फैलाया और चन्द्रोदय दिखाकर बीरवती को भोजन कराया। परिणाम यह हुआ कि उसका पति तुरन्त अविवाहित हो गया और वीरवती बारह महीने के लिए अविवाहित हो गयी। प्रत्येक चतुर्थी का व्रत किया तब पुनः प्राप्त हुआ।

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