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अवधी को राष्ट्र भाषा बनाना चाहते थे तुलसीदास

दैनिक बुद्ध का संदेश

आज की तरह खड़ी बोली हिन्दी; मध्यकालीन सांस्कृतिक मनीषा में न थी। बोलियों के संघर्ष और उनके वर्चस्व की दास्तान दिल्ली के मुगलिया सल्तनत का सच है। न जाने कितनी बोलियां दफन हो गईं। ऐसे में अवधी की मिठास लोगों को आकर्षित करती है और जीने के प्रति चाह पैदा करती है। भारत में लोदी वंश और मुगल वंश के शासन काल में जब अवध प्रांत में बोली जाने वाली अवधी बोली ने कवि जायसी और गोस्वामी तुलसीदास जी का वरण किया तब अवधी भाषा के रूप में परिमार्जित होकर राष्ट्र भाषा के रूप में जन जन में व्याप्त हो गई।

मध्यकालीन भारतीय वांग्मय में पद्मावत की धूम और श्रीरामचरित मानस की जन व्याप्ति ने असाधारण कीर्तिमान स्थापित किया। जब हिंदू और मुसलमान के बीच वैमनस्यता की गहरी खाई खुद चुकी थी तब मध्यकालीन भारतीय मनीषा के दो कवियों ने आदमीयत की नई मिसाल पेश की। मालिक मुहम्मद जायसी ने मुसलमान होकर भी हिंदुओं के घर की कहानी को काव्य रचना का आधार इस तरह बनाया कि मानवता ने महाकाव्य का स्वरूप ग्रहण कर लिया और पद्मावत की कथा को सुनने,पढ़ने के लिए तत्कालीन भारतीय जनता ने अवधी सीखी। यह अवधी भाषा की जन व्याप्ति थी। उधर गोस्वामी तुलसीदास जी ने अवधी भाषा की जन व्याप्तीकरण हेतु जन जन में व्याप्त श्रीराम की कथा को अवधी की मिठास में इस तरह पांगा कि श्रीरामचरित मानस की अविरल निर्मल गंगा की स्रोत्स्विनी फूट पड़ी जिसमें उत्तर भारत की तत्कालीन किसान और मजदूर जनता ने स्नान कर तृप्ति का अनुभव किया। ध्यातव्य है कि तब भारत की अधिकांश हिंदू जनता सामान्य रूप से कृषक और मजदूर के रूप में ही जीवन यापन कर रही थी। सामंती जीवन जी रहे अधिकांश छुटभै ये राजा मुस्लिम थे। जागीरदार भी मुस्लिम ही थे। एक महाराणा प्रताप थे तो उन्हें अपने स्वाभिमान की खातिर घास की रोटी खानी पड़ी थी। उस समय हिंदू जनता सामान्य से भी नीचे का जीवन स्तर व्यतीत कर रही थी। हिंदू बने रहने के लिए अलग से कर देना पड़ता था। ऐसे में गोस्वामी तुलसीदास जी का साहस और उनका अभियान अविस्मरणीय है।
लेखक विनय कांत मिश्र/दैनिक बुद्ध का संदेश

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