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रावस्ट्सगंज में लाग की परम्परा कायम किया था रामसुरत रामसुरत यादव ने, सोनभद्र

रॉबर्ट्सगंज में लाग की परंपरा कायम किया था रामसूरत यादव ने -नगर के संभ्रांत लोगों द्वारा आकर्षक झांकियां निकाली जाती थी। -आकर्षक झांकियों को प्रथम- द्वितीय- तृतीय पुरस्कार प्रदान किया जाता था। -उत्तर मोहाल से हुई इस परंपरा की शुरुआत। , नगर का उत्तर मुहाल सांस्कृतिक धार्मिक स्थलों की अधिकता के कारण सांस्कृतिक कार्यक्रमों का गढ़ माना जाता था। नगर के संभ्रांत नागरिक, पत्रकार, साहित्यकार इस क्षेत्र में निवास करते थे, लाग निकालने की परंपरा का शुभारंभ मिर्जापुर जनपद के निवासी स्वर्गीय रामसूरत ठेकेदार द्वारा किया गया था। रामायण कल्चर मैपिंग योजना के डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डिनेटर एवं संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश के नामित सदस्य दीपक कुमार केसरवानी के अनुसार-"भरत मिलाप वाले दिन नगर में उत्तर मोहाल से लाग निकाला जाता था और यह आकर्षक, आश्चर्यजनक झांकी की सजावट, लाग का निर्माण नगर के सधधू मिस्त्री, माता प्रसाद, जवाहिर सेठ, गुलाब प्रसाद केसरी आदि द्वारा किया जाता था और यह लाग पूरे नगर में भ्रमण करता था । आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व जरनेटर इत्यादि की व्यवस्था नहीं थी लोग ठेलें, सगड़ी आदि पर लाग निकालते थे और लाग पर रोशनी के लिए में बिजली के तार लोगों के घरों में लगाए जाते थे तब कहीं जाकर लाग में रोशनी होती थी और लोग लाग का आनंद लेते थे। लाग के आकर्षक झांकियों भगवान श्री कृष्ण बांसुरी बजाते हुए, भगत सिंह फांसी पर लटकते हुए, मां काली का रौद्र रूप आदि आकर्षक झांकियां होती थी, इस लाग में पात्र की भूमिका निभाते थी इंदर गुरु, रामा पंडित, आनंद सोनी आदि स्थानीय जन। तत्पश्चात रामलीला कमेटी द्वारा लाग के आयोजन में प्रथम, द्वितीय, तृतीय स्थान प्राप्त करने वाले लोगों को सम्मानित और पुरस्कृत किया जाता था। वरिष्ठ साहित्यकार एवं नगर पालिका परिषद के पूर्व चेयरमैन अजय शेखर के अनुसार -"रॉबर्ट्सगंज नगर में नाट्य परंपरा प्राचीन प्राचीन है। इसमें स्थानीय लोग अभिनय करते थे जिनमें बद्रीनारायण, बलराम दास, विश्वनाथ प्रसाद 'खादिम"नगर के युवा अभिनय करते थे। खादिम साहब की खजडी पर गाई जाने वाली कजली उस समय लोगों में काफी चर्चित थी। धरमादा नाटक में मैंने स्वयं अभिनय किया था। रामलीला कमेटी के पूर्व अध्यक्ष जितेंद्र सिंह के अनुसार-रामलीला समाप्त होने के पश्चात रामलीला के कलाकारों द्वारा भक्त पूरणमल, राजा भरथरी, शीत बसंत, सुल्ताना डाकू, कफन आदि नाटक का मंचन किया जाता था मैं स्वयं कफन नाटक में मुख्य पात्र की भूमिका निभाता था। साहित्यकार प्रतिभा देवी के अनुसार-"स्कूलों में राष्ट्रीय पर्वों, वार्षिक उत्सव पर विभिन्न प्रकार के नाटक का आयोजन किया जाता था जिनमें ज्यादातर नाटक का मंचन पाठ्य पुस्तकों में वर्णित कहानी के आधारित होता था। स्वामी विवेकानंद बाल विद्यालय के पूर्व छात्र दीपक कुमार केसरवानी बताते हैं कि-"सन 1982 में जब मैं कक्षा 5 का छात्र था उस समय राजा शारदा महेश इंटर कॉलेज रॉबर्ट्सगंज में जिला स्तरीय सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें हमारी पाठ्यपुस्तक राखी के मर्यादा पर आधारित नाटक का मंचन हम लोगों ने किया था जिसमें मैं हिंदूवेग, कमलेश कुमार चौरसिया तातार खा, लखविंदर कौर हुमायूं का अभिनय किया था। उस कार्यक्रम में हमारा नाटक द्वितीय स्थान पर रहा जिसके पुरस्कार स्वरूप मुझे एक प्रमाण पत्र और बाहदार गंजी उपहार में मिला था। यह मेरे छात्र जीवन का प्रथम पुरस्कार था। इसके अलावा हमारे स्कूल में अनेकों प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियां संचालित होती थी। लाग की परंपरा वाराणसी मिर्जापुर की परंपराओं पर आधारित थी जो पूर्ण रूप से बंद है आजकल के वैज्ञानिक इलेक्ट्रॉनिक युग में लकी आकर्षक झांकियों के आकर्षण से दर्शक दूर हो चुके हैं, इलेक्ट्रॉनिक सजावट ओके चकाचौंध में आंखें चौधिया गई है। लेकिन स्थानी कलाकारों द्वारा देसी तकनीक से सजाई गई आकर्षक झांकियां आज भी पुराने लोगों के जेहन में है लेकिन यह परंपरा समाप्त हो गई है अपने रॉबर्ट्सगंज नगर से। समाप्त हो गई है रंगमंच की परंपरा अब रामलीला के मंच पर शिक्षाप्रद नाटक नहीं खेले जाते और ना ही इसमें लोगों के प्रतिभाग करने में रुचि रह गई है, हां अभी थोड़ी बहुत मंचीय कला शिक्षण संस्थानों में बची है, लेकिन इन मंचों पर शिक्षाप्रद नाटक तो बहुत कम ही देखने को मिलते हैं, ज्यादातर फिल्मी धुन पर छात्र-छात्राएं मर्यादित तरीके से नृत्य करते नजर आते हैं। आज की यही परंपरा है।

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